नई दिल्ली : कोरोना संकट ने विश्व के अनेक देशों को झकझोर दिया है भारत भी इस संकट का सामना कर रहा है ।विगत दो माह से हम भारत के विभिन्न वर्गों और क्षेत्रों पर इस संकट की मार देख रहे हैं । इसमें सबसे भयावह चित्र देश के श्रमिक वर्ग का दिखाई दे रहा है ।सरकार निर्देशित लॉकडाउन का सबसे कष्टप्रद प्रभाव इस असंगठित वर्ग पर ही दिखाई पड़ रहा है । लॉकडाउन की बंदी से मजदूरों की आर्थिक स्थिति बेहद कमजोर हो गई है और उनका दैनिक जीवन संकटग्रस्त हो गया है ।
संबंधित राज्य सरकारों की प्रशासनिक कमियों के कारण इतने बड़े समूह को बिना किसी साधन और संसाधन के पलायन करना पड़ रहा है । इस पलायन में मजदूरों की आपदा और पीड़ा को देखकर विभाजन जैसी पीड़ा का दृश्य उभर कर आता है ।
इस पलायन में कोई पुरुष अपने परिवार को बैलगाड़ी पर बैठता है और उस बैलगाड़ी को अपने कंधे पर खींच कर अपने गांव की ओर चलता है, तो दूसरी ओर एक महिला सड़क पर ही अपने बच्चे को जन्म देती है यही नहीं प्रजनन के महज एक घंटे बाद ही गंतव्य के लिये सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा तय करती है । इसी पलायन में छोटे अबोध बच्चे बिना चप्पल और जूतों के सैकड़ों किलोमीटर पैदल और थकने के बाद ट्राली बैग पर बैठ कर चलते हैं।इन विपत्तियों से और अधिक अब निरंतर पैदल यात्रा के दौरान मजदूरों के साथ भीषण सड़क हादसों में दर्दनाक मृत्यु की भी घटनाएं देखने को मिल रही हैं । इस बड़े समूह का हजारों किलोमीटर की पैदल भूखे रहकर यात्रा करना कहीं ना कहीं व्यवस्था पर बड़ा प्रश्नचिन्ह लगाता है ।
क्या यह दृश्य कल्पना से अधिक भयावह नहीं है? यदि है तो इस परिस्थिति का उत्तरदायी कौन है ?
क्या यही स्वराज का मॉडल है? क्या यही समावेशी विकास का मॉडल है ?क्या यहीं प्रगतिशीलता है ? यदि नहीं तो हमारे विकास के मापदंडों में अब तक की खामियों का उत्तरदायी कौन है ?
हम यह क्यों भूल गए कि हमारी 72 वर्षों की विकास यात्रा में नींव की ईट यह श्रमिक वर्ग ही है लेकिन भूत और वर्तमान की सारी महामारियों की प्रसव पीड़ा से इस वर्ग को ही गुजरना पड़ा ।
देश के नीति निर्देशक भारत को भारतीय मूल दृष्टि से कब देखेंगे यह एक यक्ष प्रश्न है ?
हमें ज्ञात हो इस महामारी ने हमें हमारे घर,परिवार,गांव और समाज के महत्व का बोध कराया है जिसे हम रोज की आपाधापी में या तो भूल गए थे या गौण समझते थे ।
हम गांधी,लोहिया और दीनदयाल जी जैसे आदर्शों की मूर्तियां लगवाते हैं ,उनकी जयंती और पुण्यतिथि मनाते हैं लेकिन इन विधियों के जाल में हम उनके स्वप्न और विचारों को बहुत पीछे छोड़ देते हैं । चाहे वह ग्राम स्वराज का विचार हो,अंतिम व्यक्ति का विचार हो या अंतोदय का ।
यह महज सरकारों का ही कार्य नहीं है यह एक आदर्श समाज का भी दायित्व है कि वह अपने राष्ट्र की समृद्धि और विकास की मुख्य धारा में निरंतर पीछे छूटते जा रहे इस असंगठित वर्ग को जोड़ें ताकि इस समूह को फिर कभी निकट भविष्य में किसी प्रसव पीड़ा से ना गुजरना पड़े और हम अपने आदर्शों के दिखाए हुए मार्ग पर चलकर उनके सपनों को वास्तविक धरातल पर उतार सकें ।
आशीष त्रिपाठी
सहायक प्राध्यापक
दीनदयाल उपाध्याय कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
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